14 Solved Questions with Answers
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2024
भारत की एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में विवेचना कीजिये और अमेरिकी संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के साथ तुलना कीजिये। (उत्तर 250 शब्दों में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा का परिचय दीजिये तथा भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों में इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिये।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता की प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
- भारत और अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता के प्रमुख पहलुओं की तुलना कीजिये, संवैधानिक आधार, धर्म में राज्य की भागीदारी तथा वर्तमान की कानूनी चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित कीजिये।
- दोनों देशों में संवैधानिक सिद्धांतों को बनाए रखने के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा सिद्धांत तथा व्यवहार दोनों में अत्यंत भिन्नता है।
- भारत धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक अवधारणा का प्रतीक है, जो सभी धर्मों को उनके आकार या प्रभाव की परवाह किये बिना समान सम्मान देता है।
- इसके विपरीत, पश्चिमी अवधारणा, जिसका उदाहरण अमेरिका है, धर्म और राज्य के बीच पूर्ण पृथक्करण का संकेत देती है।
मुख्य भाग:
भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में:
भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता का तुलनात्मक विश्लेषण:
पहलू
भारत
संयुक्त राज्य अमेरिका
संवैधानिक आधार
प्रस्तावना (42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976) , अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 25-28
प्रथम संशोधन, "स्थापना खंड"
धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा
सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान
चर्च और राज्य का पृथक्करण
धर्म में राज्य की भागीदारी
सक्रिय (जैसे- मंदिरों का प्रबंधन, तीर्थयात्राओं को सब्सिडी प्रदान करना )
न्यूनतम (समर्थन या हस्तक्षेप से निषिद्ध)
धार्मिक शिक्षा
पूर्णतः राज्य वित्तपोषित विद्यालयों में इसकी अनुमति नहीं है
सरकारी विद्यालयों में प्रतिबंधित, निजी संस्थानों में अनुमति
व्यक्तिगत कानून
विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिये अलग-अलग (जैसे- हिंदू विवाह अधिनियम, मुस्लिम पर्सनल लॉ)
राज्य-विशिष्ट परिवार कानून नागरिकों पर लागू होता है
धार्मिक गतिविधियों के लिये राज्य वित्तपोषण
धर्मनिरपेक्ष पहलुओं के लिये अनुमति दी गई जैसे: शिक्षा (मौलाना आज़ाद शिक्षा प्रतिष्ठान)
स्वास्थ्य सेवा (क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज)
सामान्यतः निषिद्ध, कुछ अपवाद (जैसे- आस्था-आधारित पहल)
हालिया कानूनी चुनौतियाँ
सीएए 2019, शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध (कर्नाटक, 2022)
विद्यालय प्रार्थना पर बहस, सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक प्रतीक
निष्कर्ष:
भारत और अमेरिका दोनों ही देशों को राजनीति में धार्मिक प्रभाव तथा व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के बीच परस्पर क्रिया को प्रबंधित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अंततः सद्भाव और लोकतंत्र को बढ़ावा देने में धर्मनिरपेक्षता की सफलता दोनों देशों में संवैधानिक सिद्धांतों को बनाए रखने की दृढ़ प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है।
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2024
स्थानीय स्तर पर सुशासन प्रदान करने में स्थानीय निकायों की भूमिका का विश्लेषण कीजिये और ग्रामीण स्थानीय निकायों को शहरी स्थानीय निकायों के साथ विलय करने के फायदे तथा नुकसान को स्पष्ट कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- स्थानीय स्वशासन के लिये संवैधानिक ढाँचे का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- सुशासन में स्थानीय निकायों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों के विलय के करने के फायदे तथा नुकसान को स्पष्ट कीजिये।
- स्थानीय पहचान को संरक्षित करने की आवश्यकता पर बल देते हुए दक्षता के लिये स्थानीय निकायों के विलय के संभावित लाभों का के साथ निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारतीय संविधान 73 वें और 74 वें संशोधन (1992) के माध्यम से स्थानीय स्वशासन की स्थापना करता है, जिसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों के लिये पंचायतों तथा शहरी क्षेत्रों के लिये नगर पालिकाओं का गठन किया गया है, जिनमें ग्राम, मध्यवर्ती एवं ज़िला पंचायतों के साथ-साथ नगर निगम और नगर पालिकाएँ भी शामिल हैं।
मुख्य भाग:
सुशासन में स्थानीय निकायों की भूमिका:
- स्थानीय निकाय, जैसे कि बलवंत राय मेहता (1957) और अशोक मेहता (1977) जैसी समितियों द्वारा अनुशंसित किया गया है, विकास परियोजनाओं की योजना बनाने तथा उन्हें लागू करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं जो स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करते हैं एवं विकेंद्रीकृत शासन को बढ़ावा देते हैं ।
- वे स्थानीय 'सार्वजनिक उपयोगिताओं' के रूप में कार्य करते हुए, जल आपूर्ति और स्वच्छता के लिये 15 वें वित्त आयोग की सिफारिशों के माध्यम से आवंटित वित्तीय संसाधनों से भी लाभान्वित होते हैं।
- स्थानीय निकाय आरक्षित सीटों के साथ वंचित समुदाय का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करते हैं तथा ग्रामसभाओं और वार्ड समितियों के माध्यम से भागीदारी लोकतंत्र को प्रोत्साहित करते हैं।
ग्रामीण स्थानीय निकायों का शहरी स्थानीय निकायों के साथ विलय:
फायदे
नुकसान
शहरी क्षेत्रों में समेकित विकास को बढ़ावा देता है।
शहरी प्राथमिकताओं के पक्ष में ग्रामीण मुद्दों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। शहरी आबादी के अधिक होने पर ग्रामीण प्रतिनिधित्व को लेकर चिंताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
शहरीकरण के कारण समाप्त हो रहे ग्रामीण-शहरी विभाजन पर नियंत्रण को बढ़ाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों की विशिष्ट सामाजिक विशेषताएँ शासन को जटिल बना सकती हैं।
एकीकृत प्रणाली में बड़ी इकाइयाँ बड़ी विकास परियोजनाएँ आरंभ कर सकती हैं।
ग्रामीणों को चिंता है कि शहरी स्थानीय निकायों के साथ विलय से करों में वृद्धि होगी तथा मनरेगा लाभ में कमी आएगी, जैसा कि तमिलनाडु में विरोध प्रदर्शनों में देखा गया है।
निष्कर्ष:
स्थानीय निकायों के विलय से कार्यकुशलता में सुधार हो सकता है, लेकिन इससे स्थानीय पहचान समाप्त होने का खतरा है। संतुलित प्रशासन के लिये निर्णय लेने में सभी हितधारकों को शामिल करना महत्त्वपूर्ण है।
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2024
नागरिक केंद्रित प्रशासन को सुनिश्चित करने के लिये नागरिक अधिकार-पत्र पर एक ऐतिहासिक पहल रही है। किंतु इसे अभी भी अपनी पूर्ण क्षमता तक पहुँचना बाकी है। इसके वादे की प्राप्ति में बाधा डालने वाले कारकों की पहचान कीजिये और उन्हें दूर करने के उपाय सुझाइये? (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- नागरिक अधिकार-पत्र और इसके महत्त्व का संक्षिप्त परिचय लिखिये।
- नागरिक अधिकार-पत्र के पूर्ण क्रियान्वयन में बाधा डालने वाले कारकों की चर्चा कीजिये।
- इन बाधाओं को दूर करने के लिये क्रियान्वयन योग्य उपाय प्रस्तावित कीजिये।
- सुधारों के महत्त्व तथा शासन में सुधार लाने में नागरिक अधिकार-पत्र की क्षमता पर बल देते हुए निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
नागरिक अधिकार-पत्र एक महत्त्वपूर्ण पहल है, जिसका उद्देश्य लोक सेवा प्रदायगी में पारदर्शिता, जवाबदेही और दक्षता में वृद्धि करना है। नागरिक अधिकार-पत्र के समन्वय, निर्माण और संचालन का कार्य प्रशासनिक सुधार तथा लोक शिकायत विभाग (DARPG) द्वारा किया जाता है।
मुख्य भाग:
- नागरिक अधिकार-पत्र के क्रियान्वयन में बाधा डालने वाले कारक/चुनौतियाँ:
- अनेक नागरिक नागरिक अधिकार-पत्र के अस्तित्व या इसके द्वारा उन्हें दिये गए अधिकारों के बारे में अनभिज्ञ हैं, जो लोक प्राधिकारियों को जवाबदेह बनाने में असफल रहते हैं।
- नागरिक अधिकार-पत्र में सेवा मानकों का उल्लेख है, सरकारी अधिकारियों द्वारा अनुपालन न करने पर दंडित करने के लिये सीमित प्रवर्तन तंत्र हैं।
- कुछ विभाग अपने अधिकार-पत्र में नियमित रूप से संशोधन नहीं कर रहे हैं। इससे असंगति और असमान सेवा प्रदायगी की स्थिति उत्पन्न हो रही है।
- कई अधिकारी नागरिक अधिकार-पत्र को एक अतिरिक्त बोझ समझते हैं तथा इसके मानकों का पालन करने में अनिच्छा दिखाते हैं।
- नागरिक-केंद्रित सेवा वितरण में सार्वजनिक अधिकारियों का अपर्याप्त प्रशिक्षण तथा नागरिक अधिकार-पत्र की समझ का अभाव इसके प्रभावी कार्यान्वयन में बाधा डालता है।
चुनौतियों पर काबू पाने हेतु उपाय:
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने नागरिक अधिकार-पत्र की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये विभिन्न सिफारिशें प्रस्तावित कीं:
- गैर-अनुपालन के लिये दंडात्मक उपायों को लागू करना, जैसे कि अधिकारियों के विरुद्ध वित्तीय दंड या अनुशासनात्मक कार्रवाई, जवाबदेही में सुधार कर सकती है।
- अधिकार-पत्र में अधूरे वादों की एक विस्तृत सूची प्रस्तुत करने के बजाय, प्राप्त करने योग्य प्रतिबद्धताओं की सीमित संख्या को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- विभिन्न संगठनों में एक समान चार्टर सेवा प्रदायगी की प्रभावशीलता को कमज़ोर कर सकते हैं; इसलिये ऐसे अधिकार-पत्र विकसित करना आवश्यक है जो स्थानीय संदर्भों और विशिष्ट संगठनात्मक आवश्यकताओं के अनुरूप हों।
- जब नागरिक चार्टर में की गई प्रतिबद्धताएँ पूरी नहीं की जाती हैं तो अधिकारियों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिये, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि वे अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करें और जनता का विश्वास बनाए रखें।
- नागरिक अधिकार-पत्रों की निरंतर समीक्षा और संशोधन किया जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे प्रासंगिक, प्रभावी बने रहें तथा जनता की बदलती आवश्यकताओं और अपेक्षाओं के अनुरूप बने रहें।
- अधिकार-पत्र के निर्माण से पहले, संगठन को प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिये अपनी संरचना और प्रक्रियाओं को पुनर्गठित करना चाहिये।
निष्कर्ष:
नागरिक अधिकार-पत्र में पारदर्शिता, दक्षता और नागरिकों पर ध्यान केंद्रित करके शासन में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है। हालाँकि इस क्षमता को साकार करने के लिये जागरूकता बढ़ाने, बेहतर जवाबदेही, प्रभावी प्रशिक्षण और नागरिक आवश्यकताओं पर केंद्रित संस्कृति को बढ़ावा देने के माध्यम से क्रियान्वयन चुनौतियों से निपटने की आवश्यकता है।
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2024
भारत में जनहित याचिकाओं के बढ़ने के कारण स्पष्ट कीजिये। इसके परिणामस्वरूप, क्या भारत का उच्चतम न्यायालय दुनिया की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिका के रूप में उभरा है? (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)
दृष्टिकोण:
- जनहित याचिका (PIL) को परिभाषित करते हुए इसका परिचय दीजिये।
- भारत में जनहित याचिका के विकास और इसके परिणामस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय के विश्व की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिका के रूप में उभरने का उल्लेख कीजिये।
- उचित निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
जनहित याचिका (PIL) एक कानूनी कार्रवाई है जो व्यक्तिगत अधिकारों के स्थान पर जनता या किसी विशिष्ट समूह के हितों की रक्षा के लिये न्यायालय में प्रारंभ की जाती है।
- न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने मुंबई कामगार सभा बनाम अब्दुल थाई (1976) मामले में भारत में जनहित याचिका की अवधारणा की शुरुआत की।
- इसे किसी वैधानिक कानून में परिभाषित नहीं किया गया है, बल्कि इसकी उत्पत्ति भारत में न्यायिक समीक्षा की शक्ति से प्रारंभ हुई।
मुख्य भाग:
जनहित याचिकाओं की वृद्धि के कारण:
- संवैधानिक ढाँचा: मौलिक अधिकार तथा नीति-निर्देशक सिद्धांत जनहित याचिकाओं के लिये आधार प्रदान करते हैं तथा सामाजिक न्याय को बढ़ावा देते हैं।
- लोकस स्टैंडी को आसान बनाना: न्यायालयों ने जनहित याचिकाओं के लिये इस सिद्धांत में ढील प्रदान की है, जिससे संबंधित नागरिकों या संगठनों को हाशिए पर पड़े समूहों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की अनुमति प्राप्त हुई।
- न्यायिक सक्रियता: न्यायपालिका ने जनहित याचिकाओं के दायरे को बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निभाई है, विशेष रूप से जहाँ कार्यपालिका न्याय देने में विफल रही है।
- बँधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ (1984) ने सामाजिक न्याय के लिये न्यायालयों तक पहुँच को उदार बनाने की मिसाल कायम की।
- सरकारी प्राधिकारियों की निष्क्रियता: जनहित याचिकाओं (PIL) में वृद्धि का कारण सार्वजनिक मुद्दों (जैसे- नौकरशाही संबंधी रुकावटें और भ्रष्टाचार) के समाधान में सरकारी निकायों की अपर्याप्तता को माना जा सकता है, जिसके कारण नागरिक न्यायालयों में जनहित याचिकाएँ दायर करने के लिये प्रेरित होते हैं।
जनहित याचिकाओं की वृद्धि ने सर्वोच्च न्यायालय को विश्व की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिका बना दिया है।:
- कानूनों को रद्द करने की शक्ति:
- वर्ष 2021 में, सर्वोच्च न्यायालय ने NJAC अधिनियम और 99 वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर दिया (NJAC अधिनियम को चुनौती देने वाली जनहित याचिका वर्ष 2015 में दायर की गई थी)।
- न्यायिक समीक्षा के माध्यम से सरकारी निष्क्रियता को संबोधित करना:
- एम.सी.मेहता बनाम भारत संघ (वर्ष 1988) मामले में न्यायालय ने प्रदूषण को नियंत्रित करने और गंगा के जल की गुणवत्ता में सुधार लाने के निर्देश जारी किये।
- NEET 2024 पेपर लीक मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने परीक्षा की अखंडता से समझौता करने के अपर्याप्त साक्ष्य के कारण पुनः परीक्षा कराने से इनकार कर दिया और NTA की कार्यप्रणाली की समीक्षा करने और सुधारों की सिफारिश करने के लिये केंद्र द्वारा नियुक्त पैनल के दायरे का विस्तार किया।
- अधिकारों की व्यापक व्याख्या:
- सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के अधिकार को अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का आंतरिक हिस्सा माना (पुत्तस्वामी केस 2017)।
- पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ' (2017) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक अनिवार्य घटक है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यौनकर्मियों के सम्मान के अधिकार को मान्यता दी और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और सम्मान के अधिकार की व्याख्या का विस्तार किया (बुद्धदेव कर्मसकर मामला,2022)।
- स्वत: संज्ञान शक्तियाँ:
- कोलकाता हत्या-बलात्कार मामले (वर्ष 2024) में राज्य सरकार द्वारा पर्याप्त तरीके करवाई न करने के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने घटना का स्वत: संज्ञान लिया।
- न्यायिक सक्रियता और अतिक्रमण:
- समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर औपनिवेशिक काल के कानून को पलटना (नवतेज सिंह जौहर मामला) और तीन तलाक को असंवैधानिक और अमान्य घोषित करना, लैंगिक समानता और व्यक्तिगत अधिकारों को बरकरार रखना (शायरा बानो मामला वर्ष 2017)।
- सड़क दुर्घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने राजमार्गों के 500 मीटर के दायरे में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया (वर्ष 2017)।
हालाँकि जनहित याचिकाओं ने न्यायिक समीक्षा के दायरे का विस्तार किया है और सर्वोच्च न्यायालय को दुनिया की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिकाओं में से एक बनाने में योगदान दिया है, लेकिन न्यायिक अतिक्रमण की प्राय: विभिन्न हितधारकों द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्रों में अत्यधिक हस्तक्षेप के रूप में आलोचना की जाती है, एक ऐसी प्रथा जो अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में असामान्य है, जहाँ भारत के समान संवैधानिक व्यवस्थाएँ मौजूद हैं। लोकतंत्र की भावना को कायम रखने के लिये 'शक्तियों के पृथक्करण' का सम्मान किया जाना चाहिये।
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2024
केंद्र सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों के क्षेत्र में हाल ही में क्या बदलाव किये हैं? संघवाद को मज़बूत करने के लिये केंद्र और राज्यों के बीच विश्वास पैदा करने के लिये उपाय सुझाइये। (उत्तर 250 शब्दों में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- केंद्र-राज्य संबंधों और संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का परिचय लिखिये।
- राजनीतिक, प्रशासनिक और वित्तीय स्तरों पर केंद्र-राज्य संबंधों में केंद्र सरकार द्वारा हाल में लाए गए परिवर्तनों का विवरण दीजिये।
- बेहतर केंद्र-राज्य संबंधों के लिये अपनाए जा सकने वाले उपायों का सुझाइये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारत में केंद्र-राज्य संबंधों में केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच शक्तियों एवं उत्तरदायित्व का वितरण शामिल है, जो भारतीय लोकतंत्र का मूल है। इस ढाँचे को संविधान के भाग XI में रेखांकित किया गया है।
मुख्य भाग:
केंद्र-राज्य संबंधों में हालिया परिवर्तन:
- प्रशासनिक स्तर पर:
- वर्ष 2014 में केंद्र सरकार ने सहकारी संघवाद को बढ़ाने के लिये योजना आयोग के स्थान पर नीति आयोग की स्थापना की।
- विधायी स्तर पर:
- वर्ष 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से जम्मू-कश्मीर का भारत संघ में पूर्ण एकीकरण संभव हो गया।
- वर्ष 2024 में कैबिनेट ने “एक राष्ट्र, एक चुनाव” की रिपोर्ट को स्वीकृति दी, जिसमें समन्वित चुनाव की सिफारिश की गई।
- वित्तीय स्तर पर:
- वस्तु एवं सेवा कर (GST) राजकोषीय संघवाद में एक प्रमुख सुधार का प्रतिनिधित्व करता है, हालाँकि इससे राजकोषीय स्वायत्तता की हानि हुई है क्योंकि इसकी दरें GST काउंसिल द्वारा निर्धारित की जाती हैं।
चिंताएँ:
- प्रशासनिक चिंताएँ: अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग (राज्य की सहमति के बिना केंद्रीय बलों की तैनाती और राज्यपाल की भूमिका)।
- केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिये आवंटन में काफी वृद्धि हुई है, जिससे राज्यों की अपनी प्राथमिकताओं को पूरा करने की क्षमता सीमित हो गई है।
- विधायी: राज्य सूची के विषयों में केंद्र का अतिक्रमण और राज्य विधेयकों पर सहमति प्राप्त करने में विलंब।
- उदाहरण: कोविड-19 महामारी के दौरान आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 को लागू करके राज्यों पर केंद्रीय दिशा-निर्देश लागू कर दिये गए, जबकि लोक स्वास्थ्य राज्य का विषय है।
- वित्तीय मुद्दे: संसाधन जुटाने, आवंटन और आर्थिक निर्णय लेने में शक्तियों का केंद्रीकरण।
केंद्र और राज्यों के बीच विश्वास पैदा करने के लिये उपाय:
- केंद्र और राज्यों के बीच संवाद तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया को विशेषकर अंतर्राज्य परिषद (1983 में सरकारिया आयोग) को सशक्त बनाकर सुदृढ़ करना आवश्यक है।
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग रिपोर्ट (1969) सहकारी संघवाद के लिये सिफारिशें:
- अंतर्राज्यीय परिषद की स्थापना।
- राज्यों को अधिकतम सीमा तक शक्तियों का प्रत्यायोजन।
- केंद्र से राजकोषीय हस्तांतरण के माध्यम से राज्यों के वित्तीय संसाधनों में वृद्धि करना।
- सार्वजनिक जीवन और प्रशासन में दीर्घकालीन अनुभव रखने वाले गैर-पक्षपातपूर्ण व्यक्ति की किसी राज्य के राज्यपाल के रूप में नियुक्ति।
- केंद्र को राज्य की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिये अनुच्छेद 355 और 356 के उपयोग को सीमित करना चाहिये।
निष्कर्ष:
संघवाद को मज़बूत करने के लिये अंतर्राज्यीय परिषद के माध्यम से बेहतर संवाद, समय पर कानून बनाना और राज्यों के लिये वित्तीय स्वायत्तता बढ़ाना आवश्यक है।
संघवाद को मज़बूत करने के लिये राज्यों को अधिक वित्तीय स्वायत्तता, शीघ्र कानून अधिनियमन तथा अंतर्राज्यीय परिषद के माध्यम से बेहतर संचार आवश्यक है।
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2024
निजता का अधिकार प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता के आतंरिक भाग के रूप में, संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत स्वाभाविक रूप से संरक्षित है। व्याख्या कीजिये। इस संदर्भ में एक गर्भस्थ शिशु के पितृत्व को सिद्ध करने के लिये डी.एन.ए. परीक्षण से संबंधित विधि की चर्चा कीजिये।
हल करने का दृष्टिकोण:
- निजता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के बारे में संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता के अभिन्न अंग के रूप में निजता के अधिकार की व्याख्या कीजिये।
- पितृत्व स्थापित करने के लिये डी.एन.ए. परीक्षण संबंधित कानून का उल्लेख कीजिये।
- तद्नुसार उचित निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता की अवधारणाओं में अंतर्निहित है।
मुख्य भाग:
निजता का अधिकार प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है:
- निजता का अधिकार (अनुच्छेद 21), व्यक्तियों को राज्य के हस्तक्षेप के बिना व्यक्तिगत विकल्प चुनने का अधिकार देता है, जिससे स्वतंत्रता और स्वायत्तता को बढ़ावा मिलता है।
- इसमें किसी व्यक्ति के शरीर, स्वास्थ्य और प्रजनन संबंधी मामलों के बारे में बिना किसी दबाव के निर्णय लेने की क्षमता, साथ ही अनधिकृत संग्रहण या उपयोग को रोकने के लिये व्यक्तिगत डेटा को प्रबंधित करने का अधिकार भी शामिल है।
- यह व्यक्तिगत संचार, जैसे फोन कॉल, ईमेल और पत्र की निजता की भी रक्षा करता है तथा व्यक्तियों को अनुचित निगरानी से संरक्षित करता है।
- यह बहुआयामी अधिकार व्यक्तिगत गरिमा और स्वायत्तता के महत्त्व को रेखांकित करता है।
पितृत्व के लिये डी.एन.ए. परीक्षण हेतु कानून:
- निजता का अधिकार:
- ‘पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ’ (वर्ष 2017) निर्णय ने स्थापित किया कि डी.एन.ए. परीक्षण सहित निजता में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप, महिला और अजन्मे बच्चे की निजता का सम्मान करते हुए, वैधता, आवश्यकता तथा आनुपातिकता के मानदंडों को पूरा करना चाहिये।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (धारा 116):
- यह माना जाता है कि विवाह संबंध से जन्मा शिशु वैध है। जब प्रथम दृष्टया साक्ष्य पितृत्व पर संदेह पैदा करता है, तो डी.एन.ए. परीक्षण का आदेश दिया जा सकता है, जैसा कि नंदलाल वासुदेव मामला, 2014 में देखा गया था, जहाँ डी.एन.ए. इस संदेह को समाप्त कर पितृत्व को सिद्ध कर सकता है।
- गर्भधारण पूर्व एवं प्रसूति पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994:
- यह वैध चिकित्सा कारणों को छोड़कर, दुरुपयोग एवं लिंग आधारित भेदभाव को रोकने के लिये डी.एन.ए. परीक्षण समेत प्रसव पूर्व निदान परीक्षणों को विनियमित करता है।
- डी.एन.ए. प्रौद्योगिकी (उपयोग एवं अनुप्रयोग) विनियमन विधेयक– 2019
- डी.एन.ए.परीक्षण के लिये सहमति की आवश्यकता है, जो कानूनी विवादों के लिये न्यायालय के हस्तक्षेप की अनुमति देता है। विधेयक निजता को संरक्षण प्रदान करने के साथ डी.एन.ए. डेटा के दुरुपयोग पर दंड का प्रावधान भी करता है।
- न्यायिक टिप्पणी:
- अपर्णा अजिंक्य फिरोदिया बनाम अजिंक्य अरुण फिरोदिया, 2023: बच्चों पर संभावित प्रभाव को देखते हुए, तलाक के विवादों में डी.एन.ए. परीक्षण का आदेश केवल तभी दिया जाना चाहिये,जब प्रथम दृष्टया पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हों।
निष्कर्ष:
पितृत्व के लिये डी.एन.ए. परीक्षण की अनुमति तो दी जा सकती है, लेकिन इसमें निजता का अधिकार, विधिक संरक्षण और नैतिक चिकित्सा का पालन करना होगा। न्यायालयों को परिस्थितियों के आधार पर इन प्रतिस्पर्द्धी अधिकारों को सावधानीपूर्वक संतुलित करना चाहिये, ताकि निजता और न्याय सुनिश्चित हो सके।
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2024
अभी हाल ही में पारित तथा लागू किये गए लोक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 के लक्ष्य तथा उद्देश्य क्या हैं? क्या विश्वविद्यालय/राज्य शिक्षा परिषद की परीक्षाएँ भी इस अधिनियम के अंतर्गत आती हैं? (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- अधिनियम, 2024 और इसके महत्त्व का संक्षेप में उल्लेख करते हुए उत्तर की शरुआत कीजिये।
- मूल रूपरेखा का उद्देश्य अनुचित व्यवहारों को रोकना, पारदर्शिता बढ़ाना और कानूनी ढाँचा स्थापित करना है।
- अपने तर्कों के समर्थन में अधिनियम के उपयुक्त प्रावधान लिखिये।
- स्पष्ट कीजिये कि यह अधिनियम विश्वविद्यालय और राज्य शिक्षा परिषद परीक्षाओं पर लागू होता है।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
लोक परीक्षाओं में प्रश्न-पत्र लीक और कदाचार की बढ़ती घटनाओं से निपटने और पूरे भारत में परीक्षा प्रणाली की अखंडता, पारदर्शिता तथा विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने के लिये संसद द्वारा लोक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 पारित किया गया है।
मुख्य भाग:
अधिनियम लक्ष्य तथा उद्देश्य:
- इस अधिनियम का उद्देश्य लोक परीक्षाओं में संगठित अपराध एवं कदाचार तथा अनुचित साधनों के उपयोग को रोकना है।
- इसमें लाभ के लिये अनुचित साधनों को परिभाषित किया गया है, जैसे प्रश्न-पत्र या उत्तर कुंजी (आंसर की) तक अनाधिकृत पहुँच या उन्हें लीक करना,
- यह अधिनियम परीक्षा प्रणाली में जनता का विश्वास बनाने के लिये दिशा-निर्देश और कठोर दंड का प्रावधान करता है।
- अनुचित साधनों में डॉक्यूमेंट्स के साथ छेड़छाड़ करना तथा फर्ज़ी परीक्षा आयोजित करना शामिल है। बिल के तहत सभी अपराध संज्ञेय, गैर-ज़मानती हैं।
- सख्त उपायों को लागू कर, यह अधिनियम निष्पक्ष परिणामों में उम्मीदवारों का विश्वास बढ़ाता है।
- उपरोक्त अपराधों के लिये तीन से पाँच वर्ष तक की कैद और 10 लाख रुपए तक का ज़ुर्माने का प्रावधान है तथा अपराधों की जाँच उप अधीक्षक या सहायक आयुक्त स्तर के अधिकारियों द्वारा की जाएगी।
- यह कानून परीक्षा में निष्पक्षता संबंधी अपराधों से निपटने के लिये एक रूपरेखा स्थापित करता है।
- एक उच्च स्तरीय राष्ट्रीय तकनीकी समिति डिजिटल प्लेटफॉर्मों और मज़बूत सूचना संचार प्रणालियों को सुरक्षित करने के लिये प्रोटोकॉल विकसित करेगी।
शामिल परीक्षाएँ:
- लोक परीक्षा की व्यापक परिभाषा: लोक परीक्षाएँ अधिनियम के तहत निर्दिष्ट प्राधिकारियों द्वारा आयोजित की जाती हैं, जिनमें UPSC, SSC आदि परीक्षाएँ शामिल हैं।
- अधिनियम में "संस्था" को किसी भी ऐसी एजेंसी या संगठन के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें सार्वजनिक परीक्षा प्राधिकरण और उनके सेवा प्रदाता शामिल नहीं हैं।
- विश्वविद्यालयों और राज्य परिषदों का समावेश: यद्यपि विश्वविद्यालय और राज्य शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं को स्पष्ट रूप से सूचीबद्ध नहीं किया गया है, फिर भी केंद्र सरकार विधेयक के अंतर्गत अतिरिक्त प्राधिकारियों को अधिसूचित कर सकती है।
- हालाँकि यह विधेयक राज्यों के लिये भी एक आदर्श के रूप में कार्य करता है, जिससे राज्य स्तरीय सार्वजनिक परीक्षाओं में आपराधिक व्यवधानों को रोकने में सहायता मिलेगी।
निष्कर्ष:
लोक परीक्षा अधिनियम, 2024 पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देकर, भ्रष्टाचार का समाधान कर सभी उम्मीदवारों के लिये निष्पक्षता सुनिश्चित करके भारत में लोक परीक्षाओं की अखंडता को मज़बूत करता है।
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2024
ई-गवर्नेंस सेवा प्रदायगी की प्रक्रिया में डिजिटल प्रौद्योगिकी का नैत्यिक कार्यों में अनुप्रयोग मात्र ही नहीं है। इसमें पारदर्शिता और जवाबदेयता को सुनिश्चित करने के लिये विविध प्रकार की अंतर्क्रियाएँ भी है। इस संदर्भ में ई-गवर्नेंस के 'इंटरैक्टिव सर्विस मॉडल' का मूल्यांकन कीजिये। (उत्तर 250 शब्दों में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- ई-गवर्नेंस को परिभाषित कीजिये और इंटरैक्टिव सर्विस मॉडल का परिचय लिखिये।
- पारदर्शिता और जवाबदेयता सुनिश्चित करने में इंटरैक्टिव सर्विस मॉडल की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।
- नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये निरंतर सुधार एवं अनुकूलन की आवश्यकता पर बल देते हुए निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
ई-गवर्नेंस सरकार/राज्य सरकारों द्वारा नागरिकों को सेवा प्रदायगी हेतु डिजिटल प्रौद्योगिकी का उपयोग है। जैसे डिजिलॉकर, लाइफ सर्टिफिकेट, मोबाइल सर्विस आदि।
ई-गवर्नेंस का इंटरैक्टिव सर्विस मॉडल एकतरफा सेवा प्रदायगी को अंतर्क्रियाओं में परिवर्तित करता है, जिससे नागरिकों को अपनी चिंताएँ व्यक्त करने और निर्णयन में भाग लेने का अवसर मिलता है।
मुख्य भाग:
पारदर्शिता और जवाबदेयता सुनिश्चित करने में इंटरैक्टिव सर्विस मॉडल (ISM) की भूमिका:
- दो-तरफा प्रेषण: भारत में MyGov प्लेटफॉर्म जैसी पहल नागरिकों और सरकार के बीच प्रत्यक्ष अंतर्क्रियाओं को सक्षम बनाती है, जिससे सहभागिता के साथ-साथ विभिन्न प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा मिलता है।
- सूचना तक पहुँच: सूचना का अधिकार जैसी व्यवस्था और भारतीय राष्ट्रीय पोर्टल जैसे पोर्टल नागरिकों को व्यापक अद्यतन जानकारी प्रदान करते हैं।
- शिकायत निवारण: केंद्रीकृत लोक शिकायत निवारण और निगरानी प्रणाली (CPGRAMS) जैसी प्रणालियाँ नागरिकों को समस्याओं की रिपोर्ट करने तथा त्वरित प्रतिक्रिया प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करती हैं।
- नागरिक सहभागिता: "भागीदारी" जैसे कार्यक्रम शासन में सक्रिय नागरिक सहभागिता को प्रोत्साहित करते हैं, जिससे जनता और सरकार के बीच की भागीदारी सुदृढ़ होती है।
- प्रतिक्रिया (फीडबैक) तंत्र: कर्नाटक की भूमि (सॉफ्टवेयर) जैसी परियोजनाएँ डिजिटल भूमि अभिलेखों पर नागरिकों का रीयल टाइम फीडबैक प्राप्त करने में सक्षम बनाती हैं, जिससे सेवा प्रदायगी के संदर्भ में जवाबदेयता में वृद्धि होती है।
- पारदर्शिता सुनिश्चित करना: सामाजिक लेखा परीक्षा (सोशल ऑडिट) जैसी पहल, जिसमें मेघालय राज्य सामाजिक लेखा परीक्षा कानून पारित करने वाला पहला राज्य है, में शासकीय प्रक्रियाओं में ग्रहणशीलता बढ़ाना तथा जनता के बीच विश्वास स्थापित करना शामिल है।
यद्यपि इंटरएक्टिव सर्विस मॉडल महत्त्वपूर्ण है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में प्रौद्योगिकी तक असमान पहुँच (शहरी क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुँच 67% जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 31%), नवीन प्रणालियों को अपनाने में नौकरशाही का विरोध तथा डेटा गोपनीयता संबंधी चिंताएँ (जो नागरिक भागीदारी को सीमित कर सकती हैं)।
जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
निष्कर्ष:
ई-गवर्नेंस के इंटरएक्टिव सर्विस मॉडल की चुनौतियों से निपटने के लिये सरकार को ग्रामीण कनेक्टिविटी के साथ डिजिटल अंतराल को खत्म करना चाहिये और डेटा गोपनीयता सुनिश्चित करने के साथ-साथ नौकरशाही सुधार को प्रोत्साहित करते हुए डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देना आवश्यक है। इससे ई-पारदर्शिता में वृद्धि होगी और इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म एवं सोशल मीडिया के प्रभावी उपयोग के माध्यम से नागरिकों को सशक्त बनाया जा सकेगा, जिससे प्रदायगी सेवाएँ सभी के लिये स्पष्ट और सुलभ होंगी।
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2024
प्रजातांत्रिक शासन का सिद्धांत यह अनिवार्य करता है कि लोक सेवकों की सत्यनिष्ठा और प्रतिबद्धता के प्रति में लोक धारणा पूर्णतः सकारात्मक बनी रहे। विवेचना कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रजातांत्रिक शासन के सिद्धांत को परिभाषित करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- विस्तार से बताइये कि किस प्रकार प्रजातांत्रिक शासन का सिद्धांत यह आवश्यक बनाता है कि लोक सेवकों की सत्यनिष्ठा और प्रतिबद्धता के प्रति लोक धारणा पूर्णतः सकारात्मक हो।
- अंततः चुनौतियों से निपटने और प्रभावी रणनीतियों को लागू करने के लिये आवश्यक बहुआयामी दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिये।
परिचय:
प्रजातांत्रिक शासन का सिद्धांत एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें शासकीय संस्थाएँ प्रजातांत्रिक प्रक्रियाओं, विनियमों और मानदंडों के आधार पर कार्य करती हैं तथा लोगों एवं शासन करने वालों के बीच विश्वास में वृद्धि करती है।
मुख्य भाग:
प्रजातांत्रिक शासन में सकारात्मक लोक धारणा के लिये लोक सेवकों से कुछ मानकों की अपेक्षा की जाती है:
- जवाबदेही: अपने कार्यों की ज़िम्मेदारी लेना और सामान्य जन के प्रति जवाबदेह होना। जैसे- सामाजिक लेखा परीक्षा।
- निष्पक्षता: सभी नागरिकों के साथ समान और बगैर किसी पक्षपात के व्यवहार करना, सेवा प्रदायगी में न्याय सुनिश्चित करना। उदाहरणार्थ, सबका साथ सबका विकास।
- पारदर्शिता: प्रक्रियाओं, निर्णयों और नीतियों के संबंध में सुस्पष्ट तथा सुलभ जानकारी प्रदान करना। उदाहरणार्थ, सूचना का अधिकार अधिनियम।
- उत्तरदायी: नागरिकों की आवश्यकताओं, चिंताओं और फीडबैक को ध्यान से तथा शीघ्रता के साथ संबोधित करना। जैसे- सिटीज़न-चार्टर।
- नैतिक आचरण: सख्त आचार संहिता का पालन करना और भ्रष्टाचार या सत्ता के दुरुपयोग से बचना। जैसे- आचार संहिता।
- व्यावसायिकता: अपनी भूमिकाओं में क्षमता, समर्पण और सम्मान का प्रदर्शन करना। COVID-19 टीकाकरण अभियान की सफलता।
- सहानुभूति: समुदाय की विविध आवश्यकताओं और दृष्टिकोणों को समझना तथा उनका मूल्यांकन करना। उदाहरण के लिये, विशेष रूप से सक्षम लोगों की आवश्यकताओं को संबोधित करना।
- सहयोग: शासन को बढ़ाने के लिये नागरिकों समेत विभिन्न हितधारकों के साथ कार्य करना। जैसे- स्वच्छ भारत अभियान।
- लोक सेवा के प्रति प्रतिबद्धता: समुदाय के हित को प्राथमिकता देना और लोक कल्याण में सुधार के लिये प्रयास करना।
- हालाँकि भ्रष्टाचार, नौकरशाही जड़ता, पारदर्शिता की कमी और अप्रभावी संचार जैसी चुनौतियाँ लोक विश्वास को समाप्त कर सकती हैं।
निष्कर्ष:
लोक सेवकों की सत्यनिष्ठा और प्रतिबद्धता के प्रति सकारात्मक लोक धारणा प्राप्त करने के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो जनता के अविश्वास के मूल कारणों और उसमें वृद्धि करने की रणनीतियों दोनों को संबोधित करता है। सुशासन, जवाबदेही और पारदर्शिता के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिये निरंतर प्रयासों के माध्यम से ही सरकारें प्रजातांत्रिक संस्थाओं की वैधता तथा प्रभावशीलता सुनिश्चित कर सकती हैं।
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2024
कतिपय अत्यावश्यक सार्वजनिक मुद्दों से संबंधित होने के कारण सार्वजनिक चैरिटेबल ट्रस्टों में भारत के विकास को अधिक समावेशी बनाने का सामर्थ्य है, टिप्पणी कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- सार्वजनिक चैरिटेबल ट्रस्टों और उनसे संबंधित क्षेत्रों का संक्षिप्त परिचय लिखिये।
- उन मुद्दों का उल्लेख कीजिये जिनसे वे भारत के विकास को अधिक समावेशी बना सकते हैं।
- उनके समक्ष आने वाली चुनौतियों के साथ-साथ समाधान आधारित दृष्टिकोण बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
सार्वजनिक चैरिटेबल ट्रस्ट (PCT) गैर-लाभकारी संस्थाएँ हैं, जिनकी स्थापना भारतीय ट्रस्ट अधिनियम 1982 के तहत जनहित में कार्य करने तथा स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, निर्धनता उन्मूलन, आपदा राहत और पर्यावरण संरक्षण जैसे विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर ध्यान देने हेतु की गई है।
मुख्य भाग:
PCT, निम्नलिखित मुद्दों से भारत के विकास को अधिक समावेशी बना सकते हैं:
- शासन में अंतराल की आपूर्ति: PCT सामाजिक मुद्दों को संबोधित करके शासकीय प्रयासों को पूरक बनाते हैं, जैसे टाटा ट्रस्ट और अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा में कार्य करते हैं।
- सुभेद्य समुदायों को सशक्त बनाना: PCT आजीविका में सुधार हेतु सुभेद्य समुदायों के साथ कार्य करते हैं, जैसे कि बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन मातृ स्वास्थ्य और लैंगिक समानता के क्षेत्र में कार्य करता है।
- पर्यावरण संरक्षण: बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी जैसे PCT जैवविविधता और वन्यजीव संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
- समर्थन और जागरूकता: अखिल भारतीय नेताजी सामाजिक कल्याण आंदोलन जैसे PCT लैंगिक समानता और मानव अधिकारों पर नीतिगत बदलावों का समर्थन करते हैं।
- आपदा राहत: PCT, आपदा के समय त्वरित राहत प्रदान करते हैं, जैसे अखिल भारतीय डॉक्टर अब्दुल कलाम कल्याण ट्रस्ट त्वरित एवं प्रभावी सहायता उपलब्ध कराने के लिये राहत प्रदान करता है।
निष्कर्ष:
सीमित फंडिंग, नौकरशाही संबंधी बाधाएँ और दानदाताओं पर निर्भरता चैरिटेबल ट्रस्टों के प्रभाव को बाधित कर सकती है। विनियमन और पारदर्शिता को बढ़ाने के साथ-साथ शासकीय सहयोग को बढ़ाने से समावेशी विकास को बढ़ावा देने तथा सुभेद्य समुदायों को सशक्त बनाने में उनकी प्रभावशीलता में वृद्धि हो सकती है।
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2024
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक का कर्त्तव्य केवल व्यय की वैधता सुनिश्चित करना ही नहीं है, बल्कि उसका औचित्य भी सुनिश्चित करना है? (उत्तर 150 शब्द में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) के बारे में संक्षिप्त परिचय लिखिये।
- व्यय की वैधता और औचित्य सुनिश्चित करने में CAG की भूमिका का उल्लेख कीजिये।
- एक समग्र निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) संविधान के अनुच्छेद 148 के तहत एक संवैधानिक प्राधिकरण है, जिसका कार्य संघ और राज्य सरकारों के खातों की लेखापरीक्षा करना तथा यह सुनिश्चित करना है कि सार्वजनिक धन का कुशलतापूर्वक एवं कानूनी रूप से उपयोग किया जाए।
मुख्य भाग:
- व्यय की वैधता सुनिश्चित करने में सीएजी की भूमिका:
- इसमें यह परीक्षण शामिल है कि वित्तीय हस्तांतरण कानून, नियमों और विनियमों के अनुरूप है या नहीं।
- सीएजी यह सुनिश्चित करता है कि कोष का उपयोग इच्छित उद्देश्यों के लिये किया जाए तथा उसका दुरुपयोग न हो।
- सीएजी केंद्र और राज्य सरकारों के खातों को प्रामाणित करता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि वे वित्तीय स्थिति का सही तथा निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करते हैं। वित्तीय विवरणों की वैधता और सटीकता बनाए रखने के लिये यह प्रमाणन महत्त्वपूर्ण है।
- औचित्य सुनिश्चित करने में CAG की भूमिका:
- सीएजी सरकारी व्यय की विवेकशीलता, ईमानदारी और औचित्य का आकलन करने के लिये ऑडिट करता है।
- व्यय का औचित्य: क्या व्यय का उद्देश्य सार्वजनिक हित में है या यह अधिक है।
- दक्षता: क्या आवंटित संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया गया है या क्या कोई फिज़ूलखर्ची हुई है।
- सार्वजनिक हित: क्या व्यय व्यापक सामाजिक लक्ष्यों, निष्पक्षता और समानता के अनुरूप है।
- सीएजी सरकारी व्यय की विवेकशीलता, ईमानदारी और औचित्य का आकलन करने के लिये ऑडिट करता है।
- राष्ट्रमंडल खेलों और कोयला ब्लॉक आवंटन के संबंध में सीएजी की लेखापरीक्षा के दौरान महत्त्वपूर्ण विसंगतियाँ तथा घाटा पाया गया, जिससे वाद, चर्चा एवं कानूनी कार्रवाई आरंभ हुई।
निष्कर्ष:
सीएजी सार्वजनिक वित्त के प्रबंधन में पारदर्शिता, जवाबदेही और दक्षता में सुधार करता है, जिससे सरकार की सत्यनिष्ठा को बनाए रखने तथा संसाधनों के प्रबंधन के संबंध में जनता का विश्वास बनाने में सहायता मिलती है।
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2024
"कैबिनेट प्रणाली के विकास के परिणामस्वरूप व्यावहारिक रूप से संसदीय सर्वोच्चता हाशिये पर चली गई है।" स्पष्ट कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में कैबिनेट प्रणाली के विकास पर चर्चा करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- इसका तर्क प्रस्तुत कीजिये कि कैसे इस वृद्धि ने संसदीय सर्वोच्चता को हाशिये पर धकेल दिया है।
- संसदीय सर्वोच्चता के महत्त्व पर बल देते हुए निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारत में कैबिनेट प्रणाली में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है, जिसमें सामूहिक उत्तरदायित्व पर ज़ोर दिया गया है और प्रधानमंत्री को "सभी में प्रथम" माना गया है। हालाँकि संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख न किये जाने के बावजूद इस बदलाव ने कतिपय रूप से संसदीय सर्वोच्चता को हाशिये पर डाल दिया है।
मुख्य भाग:
- कार्यपालिका में शक्ति का संकेंद्रण: कैबिनेट प्रधानमंत्री और प्रमुख मंत्रियों के हाथों में शक्ति को केंद्रीकृत करती है। न्यायमूर्ति नागरत्ना की 2023 की असहमति ने संसद की मंज़ूरी के बिना विमुद्रीकरण की अवैधता को उजागर किया।
- संसदीय संवीक्षा में कमी: कैबिनेट अक्सर विधायी एजेंडे को नियंत्रित करती है, जिससे संसदीय निगरानी कम हो जाती है, जैसा कि वर्ष 2020 के कृषि कानूनों की उचित परिचर्चा के अभाव की समालोचना के रूप में देखा गया है।
- अध्यादेश: कैबिनेट अध्यादेशों के माध्यम से विधायी निरीक्षण को दरकिनार कर सकता है, जैसे कि दिल्ली के प्रशासनिक नियंत्रण पर 2023 का अध्यादेश, जिसे शुरू में बिना परिचर्चा के लागू किया गया था।
- संसदीय समिति की सीमाएँ: समितियों की सिफारिशें बाध्यकारी नहीं होतीं, जिससे कैबिनेट उन्हें नज़रअंदाज़ कर सकती है। 16वीं लोकसभा में केवल 25% विधेयक समितियों को भेजे गए, जबकि 15वीं में यह संख्या 71% थी।
निष्कर्ष:
कैबिनेट प्रणाली ने सत्ता की गतिशीलता को बदल दिया है, संसदीय सर्वोच्चता संवैधानिक रूप से संरक्षित है, जिसमें संसद के पास अविश्वास प्रस्ताव (अनुच्छेद 75) जैसी आवश्यक शक्तियाँ हैं। वर्ष 2021 में कृषि कानूनों को निरस्त करने से ज्ञात होता है कि संसद कार्यकारी शक्ति की प्रभावी रूप से जाँच कर सकती है, जो शासन और निगरानी के बीच संतुलन की आवश्यकता को उजागर करती है।
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2024
लोक अदालत तथा मध्यस्थता अधिकरण की व्याख्या कीजिये तथा उनमें अंतर स्पष्ट कीजिये। क्या वे दीवानी तथा आपराधिक दोनों प्रकृति के मामलों पर विचार करते हैं?
हल करने का दृष्टिकोण:
- लोक अदालतों और मध्यस्थता अधिकरण को परिभाषित करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- प्रश्न की आवश्यकता के अनुसार लोक अदालतों और मध्यस्थता अधिकरणों के बीच अंतर स्पष्ट कीजिये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
- लोक अदालतें विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत गठित वैधानिक मंच हैं, जो वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र के एक भाग के रूप में कार्य करती हैं।
- माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 द्वारा स्थापित मध्यस्थता अधिकरण न्यायालयों के बाहर विवादों का समाधान करते हैं।
मुख्य भाग:
लोक अदालतों और मध्यस्थता अधिकरणों के मध्य अंतर:
पहलू
लोक अदालत
मध्यस्थता अधिकरण
विवाद समाधान की प्रकृति
आपसी समझौते के माध्यम से सौहार्दपूर्ण समाधान पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
कानूनी निर्णय के आधार पर विवादों का समाधान किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप बाध्यकारी निर्णय दिया जाता है।
बाध्यकारी प्रकृति
निर्णय अंतिम तथा बाध्यकारी होते हैं, साथ ही उन्हें सिविल न्यायालय का दर्जा प्राप्त होता है, जहाँ अपील नहीं की जा सकती।
निर्णय, जिन्हें मध्यस्थ आदेश के रूप में जाना जाता है, बाध्यकारी और लागू करने योग्य होते हैं, जिन्हें सीमित आधारों पर चुनौती दी जा सकती है।
मामलों का हस्तांतरण
मामलों को न्यायालयों द्वारा या पक्षकारों के आवेदन पर संदर्भित किया जा सकता है।
पक्षकार अनुबंध के तहत मध्यस्थता के लिये सहमत होते हैं या जब पक्षकार ऐसा करने में असफल होते हैं तो संस्थाएँ मध्यस्थों की नियुक्ति करती हैं।
विवादों के प्रकार:
- लोक अदालत: इसके क्षेत्राधिकार में सिविल और आपराधिक दोनों मामलें शामिल हैं। गैर-समझौता योग्य अपराधों पर इसका कोई क्षेत्राधिकार नहीं है।
- मध्यस्थता अधिकरण: इसके क्षेत्राधिकार में घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक विवादों सहित दीवानी मामलें भी शामिल हैं, हालाँकि इन्हें आपराधिक मामलों से संबंधित अधिकार भी प्राप्त हैं।
निष्कर्ष:
लोक अदालतें सिविल और समझौता योग्य आपराधिक मामलों के सौहार्दपूर्ण समाधान पर ध्यान केंद्रित करती हैं, जबकि मध्यस्थता अधिकरण का क्षेत्राधिकार वाणिज्यिक विवादों जैसे सिविल मामलों तक सीमित है। दोनों ही समय पर न्याय प्रदान कर न्यायिक भार को कम कर सकते हैं। हालाँकि उनकी प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिये बेहतर संस्थागत समर्थन और संसाधनों की आवश्यकता है।
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2024
विभिन्न समितियों द्वारा सुझाए गए, एवं “एक राष्ट्र-एक चुनाव” के विशिष्ट संदर्भ में, चुनावी सुधारों की आवश्यकता का परीक्षण कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में लिखिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- चुनावी सुधारों के साथ-साथ “एक राष्ट्र-एक चुनाव” (ONOE) को लागू करने की क्रिया को समझाइये।
- एक राष्ट्र-एक चुनाव हेतु गठित महत्त्वपूर्ण समितियों की अनुशंसाओं का हवाला दीजिये।
- ONOE के महत्त्व का वर्णन कीजिये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
"एक राष्ट्र-एक चुनाव (ONOE)" शासन में सुधार लाने और बार-बार होने वाले चुनावों के कारण उत्पन्न होने वाले व्यवधानों को कम करने के लिये संपूर्ण देश में एक साथ चुनाव कराने की पहल का समर्थन करता है।
मुख्य भाग:
ONOE को निम्नलिखित द्वारा समर्थन प्राप्त था:
- चुनाव आयोग ने अपनी प्रथम वार्षिक रिपोर्ट (1983) में विभिन्न कारणों को व्यक्त करते हुए एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव रखा था:
- सरकार, पार्टियों और उम्मीदवारों के आधिकारिक व्यय में कमी।
- बार-बार होने वाले चुनाव कार्यों को कम करके प्रशासनिक मशीनरी और सुरक्षा बलों पर बोझ कम किया गया।
- अल्पकालिक राजनीतिक एजेंडा से उत्पन्न होने वाले शासन संबंधी मुद्दों का शमन।
- विधि आयोग ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में इस विचार का समर्थन करते हुए प्रत्येक पाँच वर्ष में एक चुनाव की सिफारिश की।
- वर्ष 2015 में संसदीय स्थायी समिति ने "दीर्घकालिक सुशासन" का हवाला देते हुए ONOE का समर्थन किया था।
ONOE के विरुद्ध उठाई गई चिंताएँ:
- लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से राष्ट्रीय मुद्दे, क्षेत्रीय तथा राज्य विशेष के मुद्दों की अनदेखी सकती है।
- राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को संघवाद को कमज़ोर करने वाले क्षेत्रीय दलों पर महत्त्वपूर्ण लाभ होगा।
- इसके लिये संविधान, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 तथा लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यविधि नियमों में भी बड़े संशोधन की आवश्यकता होगी।
निष्कर्ष:
“ONOE” विभिन्न लाभ प्रदान करता है, इसके कार्यान्वयन के लिये संवैधानिक संशोधनों और प्रक्रियात्मक परिवर्तनों की आवश्यकता होगी। कोविंद पैनल रिपोर्ट (2023) द्वारा सुझाए गए चरणबद्ध दृष्टिकोण से एक व्यावहारिक समाधान मिलता है, लेकिन इसकी सफलता आम सहमति और सावधानीपूर्वक क्रियान्वयन पर निर्भर करती है।